सन 1931 में प्रोफेसर वान-डे-ग्राफ ने एक ऐसे स्थिर विद्युत उत्पादक यंत्र की रचना की | जिसके द्वारा दस लाख वाल्ट या उससे भी उच्च कोटि का विभवान्तर उत्पन्न किया जा सकता है | इस जनित्र को उनके नाम पर ही वान-डे-ग्राफ जनित्र कहते हैं |
सिद्धान्त :-इस जनित्र का सिद्धान्त दो घटनाओं पर निर्भर करता है –
1. किसी खोखले गोले के बाहर की सतह पर ही उसका पूरा आवेश एकत्र होता है |
2. किसी चालक के द्वारा जब वायु में वैधुत-विसर्जन, उसके नुकीले सिरों के द्वारा ही होता है |
इस जनित्र की कार्यविधि इसके नुकिले सिरों की क्रिया पर आधारित है | चालाक ने नुकीले भाग पर आवेश का पृष्ठ-घनत्व अत्यधिक होने की वजह से इस भाग के पास तीव्र वैद्युत क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है | तीव्र वैद्युत क्षेत्र उत्पन्न होने के कारण नुकीले सिरों के आस-पास की वायु का आयनीकरण हो जाता है | तब विपरीत प्रकृति का आवेश आकर्षण के कारण नुकीले सिरों की ओर तथा सामान प्रकृति के आवेश प्रतिकर्षण के कारण नुकिले सिरों से दूर भागने लगते है | नुकीले सिरों से वैद्युत पवन उत्पन्न हो जाता है |
यदि किसी खोखले चालक के पास कोई आवेश लाया जाए, तो यह सम्पूर्ण आवेश खोखले चालक के बाहरी पृष्ठ पर स्थानान्तरित हो जाता है, चाहे खोखले चालक का विभव कितना भी अधिक क्यों ना हो ? इस प्रकार खोखले चालाक पर बार-बार आवेश देकर इसके आवेश तथा विभव को बहुत अधिक मान तक बढ़ाया जा सकता है | इसकी सीमा वैद्युतरोधी कठिनाइयों द्वारा निर्धारित की जाती है |
रचना :- दिए गए चित्र में वान-डी-ग्राफ की रचना प्रदर्शित है | इसमें लगभग 5 मीटर व्यास के धातु का खोखला गोला S होता है | यह गोला लगभग 15 मीटर ऊँचे विधुतरोधी स्तम्भों A और B पर टिका रहता है | C1 और C2 धातु की दो कंघियाँ होती है | C1 को फुहार कंघी तथा C2 को संग्राहक कंघी कहते है | P1 और P2 दो घिरनियाँ होती है जिसमे से होकर रेशम या रबर की बनी एक पट्टी गुजरती है |
घिरनी P1 को एक वैद्युत मोटर के द्वारा घुमाया जाता है जिससे पट्टी ऊपर की ओर तीर की दिशा में घुमने लगती है | कंघी C1 को एक उच्च विभव के बैटरी के धन सिरे से जोड़ देते है ताकि वह लगभग 10000 वोल्ट के धनात्मक विभव पर रह सके | कंघी C2 को गोले S के आंतरिक पृष्ठ से जोड़ दिया जाता है | D एक विसर्जन-नलिका है |
गोले के आवेश के क्षरण को रोकने के लिए जनित्र को लोहे के टैंक में जिसमे दाब युक्त वायु भरी होती है, उसमे बंद कर देते हैं | लोहे का टैंक पृथ्वीकृत होता है |
कार्यविधि :- जब कंघे C1 को अति उच्च विभव दिया जाता है तो तीक्ष्ण बिन्दुओं की क्रिया के फलस्वरूप यह इसके स्थान में आयन उत्पन्न करता है | धन आयनों व कंघे C1 के बीच प्रतिकर्षण के कारण ये धन आयन बेल्ट पर चले जाते है | गतिमान बेल्ट द्वारा ये आयन ऊपर ले जाए जाते है | C2 के तीक्ष्ण सिरें बेल्ट को ठीक छूटे है | इस प्रकार कंघा C2 बेल्ट के धन आवेश को एकत्रित करता है | यह धन आवेश शीघ्र ही गोले S के बाहरी पृष्ठ पर स्थानान्तरित हो जाता है | चूँकि बेल्ट घुमती रहती है, यह धन आवेश को ऊपर की ओर ले जाती है जो कंघे C2 द्वारा एकत्रित कर लिया जाता है तथा गोले S के बाहरी पृष्ठ पर स्थानान्तरित हो जाता है | इस प्रकार गोले S का बाहरी पृष्ठ हमेशा धन आवेश प्राप्त करता है तथा इसका विभव अति उच्च हो जाता है |
आवेश का निकटवर्ती वायु में क्षरण हो जाता है | अधिकतम विभव की स्थिति में आवेश के क्षरण होने की दर गोले पर स्थानान्तरित आवेश की दर के बराबर हो जाती है | गोले से आवेश का क्षरण रोकने के लिए, जनित्र को पृथ्वी से सम्बंधित तथा उच्च दाब पर वायु भरे टैंक में रखा जाता है |
वान-डी-ग्राफ जनित्र धन आवेशित कणों को उच्च वेग तक त्वरित करने के लिए प्रयोग किया जाता है | इस प्रकार का जनित्र IIT कानपुर में लगा है जो आवेशित कणों को 2 MeV ऊर्जा तक त्वरित करता है |
उपयोग :- वान-डी ग्राफ जनित्र के उपयोग निम्नलिखित हैं :-
- उच्च विभवान्तर उत्पन्न करने के लिए
- तीव्र एक्स किरणों के उत्पादन में
- प्रोटोन आदि कणों को आवेशित करने में
- कण त्वरक के रूप में
दोष :- इसके दोष निम्नवत है :-
- इसके आकार के बड़े होने के कारण इसका उपयोग असुविधानजनक होता है |
- उच्च विभव के कारण इसका उपयोग खतरनाक होता है |